Chaibasa (चाईबासा) : सारंडा वन, जिसे एशिया का सबसे बड़ा साल वन माना जाता है, अपने घने जंगल, विविध वन्यजीव और आदिवासी संस्कृति के लिए प्रसिद्ध है. यह झारखंड की प्राकृतिक धरोहर का अनमोल हिस्सा है. झारखंड सरकार ने 24 अप्रैल 2024 को सर्वोच्च न्यायालय में सारंडा के 575.19 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को वन्य जीव अभयारण्य घोषित करने हेतु शपथ पत्र दाखिल किया था. इसके बावजूद सरकार ने 30 सितंबर 2025 को पांच मंत्रियों के समूह (ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स – GOM) को सारंडा भेजकर स्थानीय लोगों के बीच रायशुमारी की, जबकि इस समूह में किसी पर्यावरणविद्, वनस्पति शास्त्री, भूगर्भ जल शास्त्री, पक्षी विज्ञानी या मानव विज्ञानी को शामिल नहीं किया गया.उक्त बातें अखिल भारतीय परिसंघ पश्चिमी सिंहभूम के सचिव वीर सिंह बिरुली ने कही.

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उन्होंने कहा कि छोटानागरा के माटागुटू मैदान में आयोजित इस आम सभा में मानकी-मुंडा और अन्य पंचायत प्रतिनिधियों से पूछा गया कि वे सारंडा को वाइल्ड लाइफ सेंचुरी बनाने के निर्णय के बारे में क्या राय रखते हैं. स्थानीय आदिवासियों ने विस्थापन, आजीविका और पारंपरिक जीवन पर प्रभाव को लेकर अपनी चिंता व्यक्त की.
सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ (न्यायाधीश बी. आर. गवाई और न्यायाधीश के. वी. विश्वनाथ) ने 17 सितंबर 2025 को झारखंड सरकार को फटकार लगाते हुए 8 अक्टूबर 2025 को मुख्य सचिव को सशरीर उपस्थित होने का आदेश दिया है. यदि आदेश का पालन नहीं हुआ, तो सरकार के खिलाफ Mandamus यानी कोर्ट के आदेश के माध्यम से सारंडा को वन्य जीव अभयारण्य घोषित करने का निर्देश दिया जा सकता है.
सारंडा वन अभ्यारण्य: संभावित नुकसान
1. स्थानीय लोगों का विस्थापन: जंगल के आसपास रहने वाले आदिवासी परिवारों को अपने पारंपरिक आवास और जीवनशैली छोड़ने पर मजबूर किया जा सकता है.
2. आजीविका पर असर: महुआ, साल बीज, लकड़ी, पत्ते और शहद जैसे संसाधनों पर प्रतिबंध से ग्रामीणों की रोज़ी-रोटी प्रभावित होगी.
3. खनन और उद्योग पर असर: सारंडा लौह अयस्क के लिए प्रसिद्ध है. सैंक्चुरी बनने पर खनन और उससे जुड़े उद्योग बंद हो सकते हैं.
4. कड़े नियम-कानून: खेती, मवेशी चराना, शिकार या लकड़ी लाने जैसी पारंपरिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगेगा.
5. संघर्ष की संभावना: बिना स्थानीय लोगों की सहमति निर्णय लेने पर विरोध-प्रदर्शन और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो सकती है.
सारंडा वन अभ्यारण्य: संभावित लाभ
1. वन्यजीव और जैव विविधता का संरक्षण : जानवरों और पक्षियों के लिए सुरक्षित आवास मिलेगा, अवैध शिकार और पेड़ों की कटाई पर रोक लगेगी.
2. पर्यावरणीय संतुलन : जंगल सुरक्षित रहने से नदियाँ, झरने और जलस्रोत संरक्षित होंगे, जिससे बारिश, ऑक्सीजन और जलवायु संतुलन बनाए रखा जा सकेगा.
3. पर्यटन और रोजगार : इको-टूरिज्म के माध्यम से ट्रेकिंग, जंगल सफारी, गाइडिंग, होटल, हस्तशिल्प और स्थानीय उत्पादों के जरिए रोजगार बढ़ेगा.
4. वैश्विक पहचान : राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सारंडा का महत्व बढ़ेगा और यह झारखंड के पर्यटन नक्शे पर प्रमुख आकर्षण बन सकता है.
आदिवासी अधिकार और चुनौतियाँ
सिंहभूम के आदिवासी, जो इस क्षेत्र के मूल निवासी हैं, आज भी नागरिकता के आवश्यक दस्तावेज़ों से वंचित हैं. 431 आदिवासी परिवारों में लगभग 2000 लोग रहते हैं, जिन्हें मतदाता पहचान पत्र, राशन कार्ड या आधार कार्ड जैसे दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं हैं. वन अधिकार कानून (2008) के तहत जमीन के मालिकाना हक़ के लिए आवेदन खारिज किए गए. वहीं, खनन कंपनियों को वनभूमि लीज पर दी जा रही है.
इस स्थिति में यदि सारंडा को वन्य जीव अभयारण्य घोषित किया जाता है, तो स्थानीय आदिवासियों की आजीविका, जीवनशैली और सांस्कृतिक अधिकारों पर गंभीर असर पड़ सकता है.
उन्होंने कहा कि सारंडा जंगल के आदिवासियों जो सिंहभूम के मूल निवासी हैं. देश की नागरिकता से वंचित रखना उनके साथ अन्याय तो है ही झारखंड और देश के लिए शर्मनाक भी है. आदिवासियों के लिए क्यों गूंगी-बहरी बन जाती है अबुआ सरकार ? इन गांवों में 431 आदिवासी परिवारों के लगभग 2000 लोग निवास करते है, जिनके पास अपनी नागरिकता साबित करने के लिए मतदाता पहचान पत्र, राशन कार्ड या आधार कार्ड जैसा कोई दस्तावेज़ नहीं है. स्पष्ट है कि कानूनी तौर पर वे इस देश के नागरिक नहीं हैं और उन्हें किसी भी समय सारंडा जंगल से बेदखल किया जा सकता है. सारंडा के ग्रामिण कहते हैं क्या हमने जंगल में रहकर कोई अपराध किया है ? 2011 की जनसंख्या के अनुसार 50 हजार की आबादी जंगल में निवास करती है. वर्तमान में यह आबादी 75 हजार से 1 लाख होने की उम्मीद की जा रही है. जोजोडेरा के 20 आदिवासी परिवारों के 105 लोग रहते हैं. जनवरी, 2008 में वन अधिकार कानून लागू होने के बाद गांव के लोगों ने मनोहरपुर अंचल कार्यालय में ज़मीन पर मालिकाना हक़ पाने के लिए आवेदन दिया लेकिन उनका आवेदन खारिज कर दिया गया. वे यह भी बताते हैं कि गांव के पास ही करमपदा में मित्तल कंपनी को लौह अयस्क का खनन करने के लिए ज़मीन लीज पर दी गई है और सरकार उन्हें वनभूमि का पट्टा इसलिए नहीं दे रही है. ताकि कंपनी को वन व पर्यावरणीय अनुमतियां लेने में परेशानी न हो. कुलाटुपा, मारीडा, टोपकोय, कोयनारबेड़ा, राटामाटी, रोगाडा, जमारडीह, टोयबो, कासीगाडा, गुंडीजोरा, छुमगदिरी, लैलोर बड़ीकुदार, जोजोडेरा, गतिगाड़ा, नुरदा इन गाँव में जनगणना तक नहीं हुई.
निष्कर्ष
सारंडा जंगल का संरक्षण जरूरी है, लेकिन इसके लिए स्थानीय लोगों को विश्वास में लेना और वैकल्पिक रोजगार व पुनर्वास सुनिश्चित करना अनिवार्य है. प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा के साथ-साथ सामाजिक न्याय और आदिवासी अधिकारों का संतुलन बनाए रखना ही इस कदम की सफलता की कुंजी है.
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